नमस्कार दोस्तों, आप सभी का स्वागत है।
पिछली पोस्ट में हमने चर्चा की कि पूर्ण अंतर्मुखी ध्यान में पहला आत्मिक अनुभव कैसा होता है ? (Click here)
जब ध्यान की ठीक प्रक्रिया अपनाई जाये तो सबसे पहले पैर सुन्न होना शुरू जाते है। यह इस बात का सूचक है कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे है।
सही दिशा इसलिए क्योंकि पूर्ण अंतर्मुखी ध्यान का उद्देश्य अपनी आत्मा या चेतना को पूर्ण रूप से पिनियल ग्रंथि पर इकठ्ठा या कंसंट्रेट करना है। ताकि हम "तीसरी या सिंगल आई"के द्वारा पांचवे आयाम में देख सके और यात्रा कर सके। यह पूर्ण तब होता है जब शरीर पूरा सुन्न हो जाये।
सही ढंग से किये गए अंतर्मुखी ध्यान में सबसे पहले पैरों के तलवे सुन्न होते है फिर टखने तक और फिर, घुटने तक शरीर सुन्न हो जाता है।
ध्यान का और समय बढ़ाने पर पैर और कमर सुन्न हो जाते हैं सबसे आखिर में धीरे धीरे बाकी का शरीर भी सुन्न जो जाता है और आत्मा सिमट कर पीनियल ग्रंथि पर इकठ्ठी हो जाती है।

क्योंकि आत्मा सिर्फ और सिर्फ मानव शरीर में यह कार्य कर सकती है। इसीलिए मानव शरीर को सृष्टि की उत्कृष्ट रचना कहा जाता है।
लेकिन इस अवस्था यानि पुर्ण अंतर्मुखी ध्यान् तक पहुंचने का सही तरीका क्या है ?? आइये जानते हैं।
इस अवस्था के लिए मुझे संत कबीर का एक दोहा याद आता है:
"तन थिर, मन थिर, बचन थिर, सुरत निरत थिर होये,
कहे कबीर उस पल का भेद न पाए कोये।"
इस दोहे में संत कबीर ने पूर्ण अंतर्मुखी ध्यान मैडिटेशन के स्टेप बाय स्टेप प्रोसेस को खोल कर रख दिया है।
स्टेप 1: तन स्थिर
स्टेप 2: मन स्थिर
स्टेप 3: वचन स्थिर
स्टेप 4: सुरत स्थिर
स्टेप 5: निरत स्थिर
अगर समझने वाला गंभीर हो तो समझना बहुत आसान है और समझने के बाद इसे प्रैक्टिस में लाना और खुद अनुभव करना बहुत ही आसान है।
चलिए आगे डिटेल में समझते हैं।
पूर्ण अंतर्मुखी ध्यान का स्टेप बाय स्टेप प्रोसेस
स्टेप 1: तन स्थिर

अगर आप शारीरिक रूप से पद्मासन में बैठने में असमर्थ हैं तो क्या आप मैडिटेशन नहीं कर सकते? बिलकुल कर सकते हैं। शर्त स्थिर रहने की है खास आसान की नहीं। अगर आप कुर्सी पर बैठ कर भी मेडिटेशन् करना चाहें कर सकते है।
आप जिस भी आसन में शरीर को बिना कष्ट दिए ज्यादा से ज्यादा देर तक स्थिर रख सकें वो ही आपके लिए उत्तम आसन है।
स्टेप 2: मन स्थिर
जैसे ही आप तन को स्थिर करने के आसन में बैठ गए आप को अपने मन को स्थिर करना शुरू करना है।
मन को स्थिर करने से मतलब यह नहीं है की आपने अपने मन की इच्छाओं को मारना है। अगर आपने मन की इच्छाओं को मारा तो यह कभी भी स्थिर नहीं होगा। मन को स्थिर करने से तात्पर्य शून्य में झांकने से भी नहीं है। मन को शुन्य करना असंभव है। शुन्य मन जैसी कोई अवस्था नहीं होती। यह अधूरी जानकारी, अधूरे अनुभव व् अधूरे ज्ञान वाले कुछ "ज्यादा समझदार" लोगों के मन की कल्पना है। मन को स्थिर करने से तात्पर्य है कि किसी एक ही खास विचार पर खास तरीके से स्थिर करना। समझने के लिये आगे पढते रहिये।
आपको पहले यह समझ लेना चाहिए की जैसे गिलास और पानी का संबंध है उसी तरह शरीर और मन का संबंध है। अगर पानी से भरे गिलास को हिलाते रहेंगे तो पानी भी हिलता रहेगा। अगर आपने पानी के गिलास को एक जगह स्थिर रख दिया तो पानी थोड़ी देर तक हिलता रहेगा फिर वह भी स्थिर होने लगेगा। जैसे ही आपने गिलास फिर से हिलाया पानी भी फिर से हिल जायेगा।
इसी तरह शरीर को हिलाते रहेंगे तो मन कभी भी स्थिर नहीं होगा। पहले शरीर स्थिर होगा फिर मन स्थिर होगा।
Urs Truly,
Satya
Satya
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