Saturday 1 October 2016

परफेक्ट मैडिटेशन का स्टेप बाय स्टेप प्रोसेस। स्टेप टू: "मन स्थिर:"।


"तन थिर, मन थिर, बचन थिर, सुरत निरत थिर होये,
कहे कबीर उस पल का भेद न पाए कोये।"
-संत कबीर 
नम्सकार दोस्तो स्वागत है आपका, 

सबसे पहले मै आपसे देरी के लिये क्षमा मांगता हूँ यह लेख लगभग दो माह के उपरांत लिख रहा हूँ।

पिछली पोस्ट में हमने चर्चा की कि पूर्ण अंतर्मुखी ध्यान में कैसे पहुंचा जाये और तन स्थिर करना क्या होता है इस भाग मे हम परफेक्ट मेडिटेशन की दुसरी अवस्था कि चर्चा करेंगे यानि मन कैसे स्थिर करें?


मन को स्थिर करने से तात्पर्य है कि जैसे आपने तन को एक अवस्था में स्थिर किया है इसी तरह मन को एक अवस्था में स्थिर करना है। परमानेंटली नहीं सिर्फ मेडिटेशन के समय
जैसे मैडिटेशन करते समय ही तन को स्थिर करना है हर समय नहीं। उसी तरह मन को भी सिर्फ मैडिटेशन के समय ही स्थिर करना है हर समय नहीं क्योंकि ऐसा करना असंभव है। पानी और गिलास का उदाहरण ध्यान रखें।  एक बार समझ आ जाये तो यह बहुत ही आसान है।


इसी तरह मन को "इच्छा-रहित " भी सिर्फ और सिर्फ मैडिटेशन के वक्त करने की आवश्यकता है हर समय नहीं। क्यूं? क्योंकि ऐसा करना भी असंभव है। मैडिटेशन के समय कैसे मन को आसानी से इच्छा रहित करें चलिये आगे जानते हैं।

मन को स्थिर करने के लिए घर बार छोड़ने की, संन्यास लेने की, कपडे लत्ते बदलने की या उतारने की या बाल बढाने की या शरीर पर भभूत लगाने की या भीख मांग कर के खाने की कोई भी आवश्यक्ता बिलकुल नहीं है। क्यों?? आप खुद समझ जाएंगे।



चूंकि मन के बारे में लोगो में भ्रम ज्यादा हैं इसलिए इन्हें दूर करने लिए थोड़ा ज्यादा लिखना होगा। कृपया साथ बने रहें।



मन को एक अवस्था में स्थिर करने के लिए हमें यह जानना जरूरी है कि मन काम कैसे करता है।

मन काम कैसे करता है?

मन एक तरह का टूल है जिसका काम है आनंद या ख़ुशी को महसूस करना और  ढूंढना। अगर आम बोलचाल की भाषा में कहे तो मजे करना ।मजे या आनंद एक आतंरिक अवस्था है। जैसे किसी खास किस्म के भोजन को खा कर मन आनंद महसूस करता है। लेकिन अगर आप रोज रोज वही भोजन करें तो मन को उसमे आनंद नहीं आएगा। तो मजा या आनंद एक मानसिक अवस्था है शारीरिक नहीं।

मन इस आनंद को कई तरह की चीज़ों में ढूंढता है। नए नए काम करता है। उन कामो में शुरू में आनंद मिलता है बाद में फिर इसे आनंद मिलना बंद हो जाता है इसी वजह से यह संतुष्ट नहीं हो पाता और यह फिर किसी और वस्तु या कार्य की तलाश में लग जाता है ताकि उसमे इसे आंनद मिल सके। इसलिए मन कभी भी अपनी वर्तमान अवस्था से संतुष्ट नहीं रहता और नई नई चीज़ों की खोज और निर्माण करता रहता है। मन की यह प्रवर्ति मानवजाति की तरक्की के लिए तो गुण ही है और सबसे महत्वपूर्ण भी है। अगर यह गुण ना होता तो आज हम इतनी तरक्की नहीं कर पाते। मन का यह गुण आत्मा की खुद की प्रगति के लिए अति आवश्यक है । कैसे ? जरा गौर फरमाइये:


एक गरीब इंसान का मन पैसा कमाना चाहता है। उसे एक घर चाहिए। वाहन चाहिए।अच्छा परिवार भी चाहिए।

जिसके पास ये सब है उसका मन क्या चाहता है?एक बड़ा घर चाहिये।एक  बड़ा वाहन  चाहिए।खूबसूरत जीवनसाथी चाहिए।

जिनके पास् ये सब कुछ है उनके मन को क्या चाहिए? बहुत सारा पैसा चाहये। बहुत सारे वाहन चाहिए। बहुत सारे बड़े घर व् बंगले चाहिए। कई तरह के संबंध चाहिए।

जिनके पास ये सब है उन्हें फिर भी आनंद नहीं मिल पा रहा। इस वजह से उन्हें डिप्रेशन ने घेर लिया है। अब उनके मन को क्या चाहिए। शांति की तलाश है। दुनिया बनाने वाले की तलाश है। सच्चाई जानने की इच्छा है।

यह एक तरह से तरक्की ही है । मन की आनंद की तलाश में यह भागदौड़ अंत में भगवान  जिसे "सत-चित-आनंद या सचिदानंद" भी कहते हैंं, पर समाप्त होती है। जिस ने पैसों का पूरा सुख लिया है वह पैसे के पीछे नहीं भागता। इसी तरह से जो शारीरिक सुख से ऊब चुके है उन्हें शारीरिक सुख की नहीं बल्कि उससे अलग कुछ नई वस्तु, सम्बन्ध या कार्य की तलाश रहती है। यह तलाश तब तक जारी रहती है जब तक मन इस दुनिया की सभी वस्तुओं, कार्यो, संबंधों इत्यादि से ऊब नहीं जाता। तब इसे आध्यात्म, मैडिटेशन, योग, परमात्मा इत्यादि की याद आती हैI

मन नए कार्य या वस्तु की तलाश सबसे पहले अपने विचारों में करता है। उदहारण के लिए किसी गरीब आदमी के पास स्वस्थ शरीर है, रहने के लिए छोटा सा घर भी है। शुरू में उसे इस अवस्था में आनंद मिल रहा था पर अब मन की प्राकृतिक प्रवर्ति की वजह से बड़े घर ज्यादा पैसा बड़ा परिवार इत्यादि की कल्पना करना शुरू करता है। यह भविष्य की नयी अवस्था की कल्पना करता है और उस नयी अवस्था में आनंद मिलने की उम्मीद करता है। और उस अवस्था को प्राप्त करने के लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगा देता है। अगर वह उस अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाता तो वह यह मान लेता है कि सुख उसी अवस्था में है और दिन रात उसी अवस्था के विचारों के एक ना रुकने वाले चक्र में फस जाता है।

ऐसे में कुछ ज्यादा सयाने लोग उस अवस्था या दुनिया की अन्य चीज़ों को हासिल करने लिए ही आध्यात्म इत्यादि की तरह दौड़ पड़ते है।

आप किस वजह से आये हैं?? सब कुछ प्राप्त करने और उनका आनंद लेने के बाद ऊँचे और स्थाई आनंद की प्राप्ति के लिए?? या अभी दुनिया की वस्तुएं प्राप्त करने के लिए ही चले आये। अगर आप दुनिया की चीज़ों की तलाश में आध्यात्म में आये है तो जनाब आपका सफर अभी बहुत लंबा है।

खैर हम मन की बात कर रहे थे। तो मन जो भविष्य में मिलने वाले सुख की लगातार कल्पना करता रहता है और इस वजह से तरह तरह के विचार उठाता रहता है इसे "सिमरन" करना कहते हैं मतलब स्मरण करना, या याद आना। मन यह हर समय करता है। इस समय भी आपका मन किसी न किसी वस्तु, कार्य, जगह या इंसान का सिमरन कर रहा होगा। यह बाहरी या सांसारिक वस्तुओं का सिमरन है। जब भी आप बाहरी वस्तुओं, व्यक्तियों, या स्थानो का सिमरन करोगे आप का मन स्थिर नही होगा क्युंकि आपका मन उन वस्तुओं व्यक्तियों, या स्थानो को पाने के लिये किसी ना किसी तरह की कोशिश करता रहेगा।


जब मन किसी का सिमरन करता है तो चेतना में उस की तस्वीर बन जाती है। इसे "ध्यान" कहते है। यह ध्यान आत्मा करती है। (ध्यान के बारे में ज्यादा अच्छे से जानने के लिए ये पोस्ट पढ़ें: http://urstrulydj.blogspot.in/2016/06/9.html )

सिमरन मन करता है ध्यान आत्मा का जाता है। इस लिये मन व आत्मा एक दुसरे से जुडे होते हैं।


सिमरन और ध्यान दोनों एक दूसरे से जुड़े है, अभिन्न हैं। मन को स्थिर करने लिए इन्ही दोनों का उपयोग करना पड़ता है।


जब आप अंतर्मुखी सिमरन करते है तो आपकी चेतना मे अंतर्मुखी ध्यान भी अपने आप बन जाता है और आपका मन धीरे धीरे स्थिर होना शुरु हो जाता है। और थोडी ही देर मे शरीर भी स्थिर हो जाता है और सुन्न होना शुरु कर देता है।


परफेक्ट अन्तर्मुखी सिमरन कैसे करें वो आगे आने वाली पोस्ट्स मे।


अगले भाग मे पढिये कि बचन स्थिर, सुरत स्थिर व निरत स्थिर करने से क्या तात्पर्य है। जिसके पुरा होते ही पांचवे आयाम का दरवाजा खुल जाता है और आपकी spiritual journey का पहला पडाव सफलतापुर्वक पुर हो जाता है और साथ ही आपके मन, आत्मा व परमात्मा से समबन्धित  सभी प्रश्नो का उत्तर अपने आप ही मिल जाता है।

Urs Truly,
Satya




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