Thursday, 7 July 2016

सही ध्यान का पहला आत्मिक अनुभव! क्या आपने किया???

नमस्कार दोस्तों और स्वागत है आप सभी का,

अगर आपने पिछले सभि लेख पढ़ें होंगे तो आपको ये पहले से मालूम होगा कि ध्यान  करने की कोई ख़ास विधि सीखने की आवश्यकता नहीं है क्यूंकि ध्यान हमारी आत्मा का एक मात्र गुण है और वो पूर्ण रूप से प्राकृतिक है।

बड़े दुःख की बात है ज्यादातर लोग आजकल ध्यान को सीखने के लिए ऐसे लोगो के पास जाते हैं  जिन्हें खुद इस विषय के बारे में ज्ञान नहीं है। कुछ लालची व व्यवसायी बुद्धी के लोग धर्म, ज्ञान, आत्मज्ञान व् भगवान् के स्वयं घोषित ठेकेदार
बन गए हैं और इस वजह से आजकल ध्यान् व धर्म टाइम-पास, दिखावा या केवल स्टाइल स्टेटमेंट बन कर रह गया है जबकि यह गुण हमारी आत्मा को इसलिए मिला है ताकि हम अपने असली कार्य को पूरा कर पायें।

ध्यान करना इतना आसान है जितना सांस लेना। जैसे सांस लेने के लिये हमें कोइ प्रयत्न नहीं करना पड्ता, वैसे ही ध्यान करने के लिये कोई प्रयास नहीं करना पड्ता. यह बहुत ही सरल है लेकिन हमें लगता है कि आध्यात्म कोइ बहुत ही गूढ चीज़ होगी इसी वजह से हम कुछ मुश्किल या असम्भव से लगने वाले अभ्यास में आध्यात्म ढुंढने की कोशिश करते हैं. हमारे मन के इसी भ्रम की वजह से लालची व व्यवसायी बुद्धी के लोग हमे मूर्ख बना देते है और अपना उल्लु सीधा करते हैं।

अब ध्यान की बात करते हैं। ध्यान मे सफल होने के लिये निम्नलिखित को समझना जरुरी है। 

ध्यान क्या है

असल मे हमारी आत्मा हर समय ध्यान करती रहती है इस दुनिया मे आत्मा सिर्फ ध्यान के द्वारा ही कार्य करती है। हम जिस भी वस्तु का ध्यान करते हैं हमारी आत्मा की चेतना तुरंत उस वस्तु की तरफ मुड जाती है।

उदाहरण के लिये अगर आपको कहा जाए कि एक नीले संतरे के बारे मे सोचो तो आपकी चेतना मे एक "नीले संतरे" की तस्वीर उभरेगी. ये ही ध्यान है।

यह ध्यान हमारी चेतना मे बनता है और यह ध्यान हमारे बिना किसी प्रयास के भी बन जाता है और हम इसे प्रयास से भी बना सकते है। हमारा मन कल्पना करने मे सक्षम है और आत्मा का ध्यान उस कल्पना की तरफ आसानी से चला जाता है। मन के कल्पना करने की इसी विशेषता यानी किसी एक विचार को बार-बार उठाने को सिमरन् करना कहा जाता है। जब हम लगातार किसी दृश्य, आवाज़, भोजन, खुश्बु या स्पर्श का सिमरन करते रहते हैं तो आत्मा का ध्यान उसी मे घुमना शुरु हो जाता है। जैसे अगर आप कोइ गाना बार बार सुने तो आपके मन मे वो गाना बजना शुरु हो जाता है और जब तब आपको याद आना शुरु हो जाता है। या जैसे आपको कोइ वयक्ती पसन्द है तो उसकी तस्वीर आपकी चेतना में बनना शुरु हो जायेगी और बार बार् उसकी याद आयेगी  है और आत्मा या हमारी चेतना मे उसका ध्यान बन जायेगा। 

यहाँ यह सपष्ट करना आवश्यक है की ध्यान दो तरह का होता है 1) बाहरी ध्यान और 2) अंतर्मुखी ध्यान

बाहरी या बाहर्मुखी ध्यान 

1) जब हम  बाहर कुछ देखते या सुनते, चखते, सुंघते या मह्सूस करते है तो और उस दृश्य, आवाज़, भोजन, खुश्बु या स्पर्श पर ध्यान केन्द्रित करते है तो उसे बाहर्मुखी ध्यान कहते हैं। 

इसे उदाहरण से स्पष्ट करते हैं

अगर आप यह लेख कम्प्युटर पर पढ रहे हैं तो आपके सामने "यह वाक्य" है, कम्प्युटर है, कम्प्युटर की स्क्रीन है, कम्प्युटर का की-बोर्ड भी है लेकिन आपका बाहरी ध्यान सिर्फ इसी वाक्य पर है जबकि हमारी आंखों के सामने बहुत सारी वस्तुए है। 

हमारी आंख "इस वाक्य" को देख रही है और हमारे मस्तिष्क मे इसकी तस्वीर बन रही है हम् इसे ही बाहरी ध्यान कहते है । दुसरे शब्दो मे जब भी हम  अपनी आंख.कान, नाक मुह या त्वचा का इस्तेमाल करते हैं और हमारे मस्तिष्क मे भी प्रतिक्रिया होती है तो हम सिर्फ बाहरी ध्यान ही कर रहे होते हैं। थोड़ा और गहराई से समझे तो जिस भी क्रिया मे हमारा मस्तिष्क उपयोग होता है वह बाहरी ध्यान ही है। 

अंतर्मुखी ध्यान

2) जब हम प्रयास कर के किसी एक ही वस्तु या वयक्ती की तस्वीर अपनी चेतना मे बनाते है या कल्पना करते हैं तो उसे अंतर्मुखी ध्यान कहते हैं। अंतर्मुखी ध्यान मे हमारे शरीर या हमारे मस्तिष्क का कोइ उपयोग नहीं होता। जैसे अगर आप आंख बन्द कर के किसी जगह के बारे मे सोचें तो हमारे शरीर का कोई भी अंग उपयोग नही हो रहा । यह् अंतर्मुखी ध्यान है लेकिन है यह बाहरी वस्तुओं का। 




"पुर्ण अंतर्मुखी ध्यान" 
जब हम आंख बन्द कर के अन्दर दिखने वाले अन्धेरे को देखते है तो यह ही सही मायनो मे "पुर्ण अंतर्मुखी ध्यान" है। यह अंधेरा हमारी आंख नही बल्कि हमारी चेतना या आत्मा ही देखती है।


पहला आत्मिक अनुभव


3) जब हम अंतर्मुखी लेकिन बाहरी वस्तुओं के ध्यान मे  काफी देर तक बैठे रहते है तो हमे या तो नींद आ जाती है या 10-15 मिनट्स से ज्यादा नही बैठा जा सकता। और इस वजह से हमें किसी प्रकार का आत्मिक अनुभव नहीं होता। 

जब हम "पुर्ण अंतर्मुखी ध्यान" मे काफी देर तक बिना शरीर को हिलाये बैठे रहते है तो चूंकि हमारा शरीर इस्तेमाल नहीं हो रहा इसलिये हमारी आत्मा सिमटना शुरु हो जाती है।

4) हमें आत्मिक अनुभव सिर्फ और सिर्फ तब होते हैं जब हमारी आत्मा सिमटना शुरु हो जाती है। 

5) जब हमारी आत्मा सिमटना शुरु हो जाती है तो सबसे पहले पैर सुन्न हो जाते हैं और जब वापस शरीर मे फैलती है तो कुछ देर के लिये झनझनाहट होती है और फिर सब ठीक हो जाता है। 

6) असल मे पहला आत्मिक अनुभव ही ध्यान के समय पैरो का सुन्न होना है। इसका मतलब है कि आप ठीक दिशा मे जा रहे हैं और आपकी आत्मा सिमट रही है।

(अगर बिना मेडिटेशन पर बैठे आपके पैर सुन्न होते है और झनझनाहट होती है तो आपको मेडिकल सलाह कि आवश्यक्ता है)

7) बाहरी ध्यान मे आत्मा का सिम्टाव असम्भव है क्युंकि इसमे शरीर का और उसके अंगो का इस्तेमाल करना पड्ता है मस्तिष्क भी शरीर् का एक अंग है। अगर मस्तिष्क का इस्तेमाल हो रहा है तो यह बाह्रमुखी ध्यान है और् इसमे आपको कोइ आत्मिक अनुभव नही होगा।

8) अगर आप अपने ध्यान को किसी खास जगह पर टिका रहे हैं जैसे की नाक के अग्र भाग पर् या अपनी सांसो पर तो यह बाह्रमुखी ध्यान है इसमे
आपको कोइ गूढ़् आत्मिक अनुभव नही होगा हाँ थोड़ी बहुत शांती का अनुभव हो सकता है। अगर आप अपनी आंखो को उपर चढा कर किसी खास जगह को ढुंढने की कोशिश कर रहे है तो यह भी बाहरी ध्यान है इसमे भी आपको कोइ आत्मिक अनुभव नहीं होगा और सर दर्द या आंख दर्द इत्यादी हो जायेगे। 

9) लेकिन अगर आप आंख बन्द कर के "पुर्ण अंतर्मुखी ध्यान" मे है तभी आपको आत्मिक अनुभव होंगे।


सही मायनो मे "पुर्ण अंतर्मुखी ध्यान"  की विधि क्या है और "सफल ध्यान क्या है यह मै अपने अगले लेख मे बहुत ही जल्द लिखुंगा। 

Urs Truly,
Satya

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